अवधेष गौतम
बुन्देलखण्ड को उसकी बदहाली से उबारने केलिए “बुन्देलखण्ड विषेश विकास प्राधिकरण” एक सार्थक प्रयाष साबित हो सकता था। लेकिन वह सम्भावना देष की मूल्यविहीन राजनीति की वलि चढ़ गयी। भारत सरकार की इस मन्षा को राज्यों की स्वायत्ता में अतिक्रमण बता कर उत्तर प्रदेष और मध्य प्रदेष की सरकारों नें उक्त प्राधिकरण के खिलाफ अपनी जबरजस्त आपत्ति दर्ज कराई उसके बाद तो जैसे भारत सरकार इस आपत्ति का अन्तजार ही कर रही थी। उसनें भी अपना विना किसी प्रकार का स्पश्टीकरण दिए ही इस योजना से अपना हाथ ही खीच लिया।
इस के बाद भारत सरकार नें एक मोटी रकम निर्धारित करके बुन्देलखड केलिए विषेश पैकेज की घोशणा करदी। इसबार तो ईष्वर नें जैसे प्रान्त सरकारों के मन की मुराद ही पूरी करदी। पैकेज केलिए आपत्ति दर्ज कराना तो दूर बल्कि पैकेज में रकम कम बता कर उसे बढ़ानें केलिए भारत सरकार के सामनें घिघियाती नजर आयी यह दोनो ही प्रान्त सरकारें। कहती जरूर कुछ नहीं लेकिन यह पब्लिक है, सब जानती है।
“विषेश विकास प्राधिकरण” और “विषेश पैकेज” दोनों में सिर्फ एक समानता है कि पैसा दोनों में ही खर्च होगा। लेकिन इसके अतिरिक्त बहुत सारी भिन्नताएं है जिनकी वजह से दोनों के परिणामों में अमूलचूल अन्तर होगा। प्राधिकरण लोक सभा में प्रस्ताव पास होने के बाद ही बनता, लेकिन पैकेज केलिए केन्द्रीय कैविनेट में प्रस्ताव पास हुआ और पैसा भारत सरकार के खजानें से प्रदेष सरकारों के खजानें में आ गया। प्राधिकरण एक वैधानिक ढांचा होता जिसकी सिफारिशों को मानने केलिए भारत सरकार और प्रान्त सरकारें बाध्य हो सकती थीं और उसकी निरन्तरता की भी सम्भावना थी।
प््रााधिकरण केलिए एक नियमावली होती जिसके अधीन रहकर वह काम करता और स्वायत्तषाशी होता। प्राधिकरण का काम इम्पैक्ट ओरिएटेंड होता, लेकिन पैकेज का काम फण्ड यूटिलाइजेषन ओरिएंटेड होगा। प्राधिकरण लोक सभा के प्रति जवाब देय होता लेकिन पैकेज प्रान्त सरकारों की रहमों करम पर काम करेगा चूंकि पैकेज की भी फण्डिंग भारत सरकार से है अतः भारत सरकार केवल मानीटरिंग केलिए ही काम कर सकती है। प्राधिकरण पद्धति पर अप्रेजल, इम्प्लीमेंन्टेषन, और मानीटरिंग तीनों में ही पब्लिक पार्टीषिपीषन की गुन्जायस थी।
ऐसा नहीं कि भारत सरकार यदि “बुन्देलखण्ड विषेश विकास प्राधिकरण” बनानें जा रही थी तो कोई अनोखा काम करनें नहीं जा रही थी। बल्कि देष के जिस भी किसी प्रान्त या उसके किसी हिस्से के लोग विकाष में पीछे रह गए थे भारत सरकार नें वहो के लोगों को विकास की मुख्य धारा में षामिल करनें केलिए ऐसे विषेश प्राधिकरण हमषा ही बनाए हैं। अपनें ही प्रदेष में “उत्तराखण्ड विषेश विकास प्राधिकरण” उत्तराखण्ड केलिए लम्बे समय तक काम करता रहा है। यदि यह कहा जाय कि आज का “उत्तराखण्ड प्रान्त विष” “उत्तराखण्ड विषेश विकास प्राधिकरण” की ही देन है तो कोई अतिषंयोक्ति नहीं होगी।
आप कह सकते हैं कि बुन्देलखण्ड दो प्रान्तों के बीज बटा है इसलिए समस्या है। लेकिन तब आप यह क्यों भूल जाते हैं कि पंजाब और हरियाणा दोनों ही प्रान्तों की राजधानी “चण्डीगढ़” और यह एक छोटा सा षहर केन्द षासित राज्य है लेकिन उससे किसी भी प्रान्त की स्वायत्ता में अतिक्रमण नहीं होता। देष की राज धानी दिल्ली, दिल्ली प्रान्त द्वारा षासित है वहां भी किसी की स्वायत्ता का हनन नहीं होता। लोग जाने हैं कि सवाल स्वायत्ता का नहीं सिर्फ और सिर्फ सवाल पैसे का है।
बुन्देलखण्ड को उसकी बदहाली से उबारने केलिए “बुन्देलखण्ड विषेश विकास प्राधिकरण” एक सार्थक प्रयाष साबित हो सकता था। लेकिन वह सम्भावना देष की मूल्यविहीन राजनीति की वलि चढ़ गयी। भारत सरकार की इस मन्षा को राज्यों की स्वायत्ता में अतिक्रमण बता कर उत्तर प्रदेष और मध्य प्रदेष की सरकारों नें उक्त प्राधिकरण के खिलाफ अपनी जबरजस्त आपत्ति दर्ज कराई उसके बाद तो जैसे भारत सरकार इस आपत्ति का अन्तजार ही कर रही थी। उसनें भी अपना विना किसी प्रकार का स्पश्टीकरण दिए ही इस योजना से अपना हाथ ही खीच लिया।
इस के बाद भारत सरकार नें एक मोटी रकम निर्धारित करके बुन्देलखड केलिए विषेश पैकेज की घोशणा करदी। इसबार तो ईष्वर नें जैसे प्रान्त सरकारों के मन की मुराद ही पूरी करदी। पैकेज केलिए आपत्ति दर्ज कराना तो दूर बल्कि पैकेज में रकम कम बता कर उसे बढ़ानें केलिए भारत सरकार के सामनें घिघियाती नजर आयी यह दोनो ही प्रान्त सरकारें। कहती जरूर कुछ नहीं लेकिन यह पब्लिक है, सब जानती है।
“विषेश विकास प्राधिकरण” और “विषेश पैकेज” दोनों में सिर्फ एक समानता है कि पैसा दोनों में ही खर्च होगा। लेकिन इसके अतिरिक्त बहुत सारी भिन्नताएं है जिनकी वजह से दोनों के परिणामों में अमूलचूल अन्तर होगा। प्राधिकरण लोक सभा में प्रस्ताव पास होने के बाद ही बनता, लेकिन पैकेज केलिए केन्द्रीय कैविनेट में प्रस्ताव पास हुआ और पैसा भारत सरकार के खजानें से प्रदेष सरकारों के खजानें में आ गया। प्राधिकरण एक वैधानिक ढांचा होता जिसकी सिफारिशों को मानने केलिए भारत सरकार और प्रान्त सरकारें बाध्य हो सकती थीं और उसकी निरन्तरता की भी सम्भावना थी।
प््रााधिकरण केलिए एक नियमावली होती जिसके अधीन रहकर वह काम करता और स्वायत्तषाशी होता। प्राधिकरण का काम इम्पैक्ट ओरिएटेंड होता, लेकिन पैकेज का काम फण्ड यूटिलाइजेषन ओरिएंटेड होगा। प्राधिकरण लोक सभा के प्रति जवाब देय होता लेकिन पैकेज प्रान्त सरकारों की रहमों करम पर काम करेगा चूंकि पैकेज की भी फण्डिंग भारत सरकार से है अतः भारत सरकार केवल मानीटरिंग केलिए ही काम कर सकती है। प्राधिकरण पद्धति पर अप्रेजल, इम्प्लीमेंन्टेषन, और मानीटरिंग तीनों में ही पब्लिक पार्टीषिपीषन की गुन्जायस थी।
ऐसा नहीं कि भारत सरकार यदि “बुन्देलखण्ड विषेश विकास प्राधिकरण” बनानें जा रही थी तो कोई अनोखा काम करनें नहीं जा रही थी। बल्कि देष के जिस भी किसी प्रान्त या उसके किसी हिस्से के लोग विकाष में पीछे रह गए थे भारत सरकार नें वहो के लोगों को विकास की मुख्य धारा में षामिल करनें केलिए ऐसे विषेश प्राधिकरण हमषा ही बनाए हैं। अपनें ही प्रदेष में “उत्तराखण्ड विषेश विकास प्राधिकरण” उत्तराखण्ड केलिए लम्बे समय तक काम करता रहा है। यदि यह कहा जाय कि आज का “उत्तराखण्ड प्रान्त विष” “उत्तराखण्ड विषेश विकास प्राधिकरण” की ही देन है तो कोई अतिषंयोक्ति नहीं होगी।
आप कह सकते हैं कि बुन्देलखण्ड दो प्रान्तों के बीज बटा है इसलिए समस्या है। लेकिन तब आप यह क्यों भूल जाते हैं कि पंजाब और हरियाणा दोनों ही प्रान्तों की राजधानी “चण्डीगढ़” और यह एक छोटा सा षहर केन्द षासित राज्य है लेकिन उससे किसी भी प्रान्त की स्वायत्ता में अतिक्रमण नहीं होता। देष की राज धानी दिल्ली, दिल्ली प्रान्त द्वारा षासित है वहां भी किसी की स्वायत्ता का हनन नहीं होता। लोग जाने हैं कि सवाल स्वायत्ता का नहीं सिर्फ और सिर्फ सवाल पैसे का है।
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