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Friday, October 8, 2010

विकास या विनाश ! बुन्देलखण्ड के पुल


सरकारों नें पारिथतिकी को बलाएताक रख बुन्देलखएड में विकास के लिए तमाम सारी योजनाएं बनाईं और उन्हें लागू भी किया। लेकिन विकास केलिए योलनाएं बनाते समय, उनके औचित्य और सम्भावित परिणाम तथा उनके पूरी हो जानें के बाद भी उनकी लागत और परिणाम का मूल्यांकन तक नहीं किया। इसके बाद भी ठीक उसी प्रकार की परियोलनाओं की श्रंखलाएं विकसित की गयी। जानकार लोग अब इस तथ्य पर विश्वास करनें लगे हैं कि सरकारों का उद्देष्य किसी क्षेत्र की समस्या का समाधान नहीं बल्कि वह समस्या समाधान करते हुए दिखना मात्र चाहती है, और उसके इस काम में पैसा खर्च किया जाना उसके व्यक्तिगत आर्थिक हितों में शामिल है। अवधेष गौतम
यातायात व्यवस्था के नाम पर यहां की नदियों में बड़े पैमानें पर पुल बनाए गए। लेकिन पुलों की लागत कम करनें के उद्देष्य से केवल नदियों की पेटी के ऊपर तो पुल बनाया गया लेकिन बाढ़ के समय उनके पानी निकलनें के रास्ते में एप्रोचरोड के लिए मिट्टी के बांध खड़े कर दिए गऐ। परिणाम स्वरूप नदियों की बाढ़ के समय उनका प्रवाह बाधित हो गया। जिससे बाढ़ ने भारी तवाही तो मचाई ही साथ ही उनके प्रवाह का रुख भी आक्रमक हो गया। परिणाम स्वरूप नदियों द्वारा ही खेतों में बिछाई गई अत्यन्त उपजाऊ मिट्टी तो बह गयी और उसकी जगह पर बालू की मोटी पर्त बिछ गयी।
बांदा जिले में ही केन पर बांदा शहर में तीन, पैलानी में एक, केन यमुना के संगम चिल्ला में यमुना पर एक पुल बनाया गया है। बांदा में ही चिल्ला से मात्र 18 किमी0 की दूरी पर यमुना पर एक और पुल बेंदा के पास पहले ही बना था। यमुना नदी पर ही चित्रकूट जिले में राजापुर के पास एक पुल और बनाया गया है। हमीरपुर में बेतवा और यमुना दोनों पर सड़क के एक एक और इन दोनों के संगम के बाद यमुना पर रेल का एक पुल बनाया गया है।
सम्भव है इन पुलों से कुछ लोगों को यात्रा में सुविधा मिली हो। अधिसंख्य के नसीब में तो बाढ़ें और खेती का विनाश ही लिख गया है। इन पुलों से किसी किसान का लाभ तो आज तक समझ में नहीं आया बाजार को अवश्य लूटनें के आसान अवसर मिल गए।
अनुभव बतातें हैं कि नदी के प्रवाह में यदि एक पुल बनता है तो वह डेढ़ से तीन मीटर तक नदी के ऊपरी हिस्से पर बाढ़ को बढ़ा देता है, ऊपर के चित्र में साफ स्पष्ठ है। तीन मीटर पानी की दीवार जब पुल की कोठियों के बाहर आती है तो वह जबरदस्त कांणी (जलीय चक्रवात) जो नदी के प्रवाह में 70 कि0मी0 से 150 कि0मी0 तक अपना प्रभाव छोड़ती है। जो नदी के प्रवाह में एक तूफान पैदा कर देती है। जिस कारण खेतों की मिट्टी बह जानें से वहां चट्टानें निकल आती हैं या फिर बालू बिछ जाती है।
इस प्रकार बाढ़ से यहां जो नुकसान पानी में डूबनें, बहने से होता है वह तो होता ही है साथ ही खेतों की तवाही के बाद तो वह नुकसान स्थाईभाव ग्रहण कर लेता है। केवल सूखा ही नहीं यहां की बाढ़ भी बुन्देलखण्ड की तवाही का एक सबब बनती है। पहले तो बाढ़ यदि तबाही मचाती थी तो वह खेतों में नई मिट्टी बिछा कर पैदावार भी बढ़ा देती थी, खेतों में एक तो बालू पड़ती नहीं थी और यदि पड़ भी गयी तो ग्रामीणों को आसानी से मोरम उपलब्ध हो जाती थी। लेकिन इन पुलों की राजनीति के बाद अब तो खेतों में केवल बालू ही पड़ती है और वह भी सरकार द्वारा बालू माफियाओं की झोली में डाल दी जाती है।
विकास केलिए यातायात भी जरूरी है और यदि यातायत के बीच में नदियां हैं तो उनमें पुल भी बनानें ही पड़ेंगें। लेकिन सवाल यह है कि कितने पुल, कैसे पुल और कहां पुल। लेकिन यहां तो पुल बनानें केलिए और उसमें पैसा खर्च करनें केलिए पुल बनाए गए है। यही कारण है कि यहां पुल बनानें केलिए स्थान और तकनीकि दोनों का ही चयन गलत तरीके से हुआ है। यही कारण है कि अब यह पुल यातायात के लिए न होकर पुलों के लिए यातायत हो गया है। ठीक उसी तरह से जैसे कि विकास आदमी के लिए न होकर विकास के लिए आदमी हो गया है। यदि इन पुलों की तकनीकि ठीक रखी जाती तों पुल बनाना थोड़ा मंहगा काम हो जाता। जिससे जगह जगह पुल बना देनें की प्रवृत्ति पर रोक तो लगती ही साथ यह पुल विनाश के वाहक नहीं बन पातें।
ऐसा नहीं कि हमारे तकनीशियनों के पास किसी तरह के ज्ञान की कमी है। अभी हाल ही इलाहाबाद में यमुना नदी पर एक पुल बनाया गया है। जिसकी तकनीकी की तारीफ की जानी चाहिए। वह पुल भी किसी विदेशी नें नहीं बनाया हमारे देश के इन्जीनियर्स नें ही बनाया है। पुल तो है लेकिन यमुना के जल प्रवाह को रंचमात्र भी बाधा नहीं पहुचाता। यही पुल बुन्देलखण्ड में बाढ़ के समय तबाही मचा देते हैं।
बाढ़ के मंजर के समय तो लोग बचनें बचानें में व्यस्त हो जाते हैं, और बाढ़ उतरनें के बाद अपनी व बाढ पीड़ितों की राहत तथा पुनर्वास में। लेकिन भुक्तभोगी तो जानते हैं कि बांदा में केन की बाढ़ नें 1992 में पैलानी पुल के पहले इतिहास के सारे रिकार्ड तोड़ दिए थे, और 2005 में 1992 का भी रिकार्ड टूट गया था, लेकिन पैलानी पुल के बाद तो केन अपनें द्वारा बनाए गए 1978 के रिकार्ड को भी नहीं छुवा था। भुक्तभोगी इसके लिए केन पर बनें बांधों और उस पर बनें पुलों को ही अपराधी मानते हैं। लेकिन उनकी सुनने वाला और मानने वाला कौन है।

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