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Friday, October 8, 2010

बुन्देलखण्ड ! एक सम्भावना थी “विषेश विकास प्राधिकरण”

अवधेष गौतम
बुन्देलखण्ड को उसकी बदहाली से उबारने केलिए बुन्देलखण्ड विषेश विकास प्राधिकरणएक सार्थक प्रयाष साबित हो सकता था। लेकिन वह सम्भावना देष की मूल्यविहीन राजनीति की वलि चढ़ गयी। भारत सरकार की इस मन्षा को राज्यों की स्वायत्ता में अतिक्रमण बता कर उत्तर प्रदेष और मध्य प्रदेष की सरकारों नें उक्त प्राधिकरण के खिलाफ अपनी जबरजस्त आपत्ति दर्ज कराई उसके बाद तो जैसे भारत सरकार इस आपत्ति का अन्तजार ही कर रही थी। उसनें भी अपना विना किसी प्रकार का स्पश्टीकरण दिए ही इस योजना से अपना हाथ ही खीच लिया।
इस के बाद भारत सरकार नें एक मोटी रकम निर्धारित करके बुन्देलखड केलिए विषेश पैकेज की घोशणा करदी। इसबार तो ईष्वर नें जैसे प्रान्त सरकारों के मन की मुराद ही पूरी करदी। पैकेज केलिए आपत्ति दर्ज कराना तो दूर बल्कि पैकेज में रकम कम बता कर उसे बढ़ानें केलिए भारत सरकार के सामनें घिघियाती नजर आयी यह दोनो ही प्रान्त सरकारें। कहती जरूर कुछ नहीं लेकिन यह पब्लिक है, सब जानती है।

विषेश विकास प्राधिकरणऔर विषेश पैकेजदोनों में सिर्फ एक समानता है कि पैसा दोनों में ही खर्च होगा। लेकिन इसके अतिरिक्त बहुत सारी भिन्नताएं है जिनकी वजह से दोनों के परिणामों में अमूलचूल अन्तर होगा। प्राधिकरण लोक सभा में प्रस्ताव पास होने के बाद ही बनता, लेकिन पैकेज केलिए केन्द्रीय कैविनेट में प्रस्ताव पास हुआ और पैसा भारत सरकार के खजानें से प्रदेष सरकारों के खजानें में आ गया। प्राधिकरण एक वैधानिक ढांचा होता जिसकी सिफारिशों को मानने केलिए भारत सरकार और प्रान्त सरकारें बाध्य हो सकती थीं और उसकी निरन्तरता की भी सम्भावना थी।
प््रााधिकरण केलिए एक नियमावली होती जिसके अधीन रहकर वह काम करता और स्वायत्तषाशी होता। प्राधिकरण का काम इम्पैक्ट ओरिएटेंड होता, लेकिन पैकेज का काम फण्ड यूटिलाइजेषन ओरिएंटेड होगा। प्राधिकरण लोक सभा के प्रति जवाब देय होता लेकिन पैकेज प्रान्त सरकारों की रहमों करम पर काम करेगा चूंकि पैकेज की भी फण्डिंग भारत सरकार से है अतः भारत सरकार केवल मानीटरिंग केलिए ही काम कर सकती है। प्राधिकरण पद्धति पर अप्रेजल, इम्प्लीमेंन्टेषन, और मानीटरिंग तीनों में ही पब्लिक पार्टीषिपीषन की गुन्जायस थी।
ऐसा नहीं कि भारत सरकार यदि बुन्देलखण्ड विषेश विकास प्राधिकरणबनानें जा रही थी तो कोई अनोखा काम करनें नहीं जा रही थी। बल्कि देष के जिस भी किसी प्रान्त या उसके किसी हिस्से के लोग विकाष में पीछे रह गए थे भारत सरकार नें वहो के लोगों को विकास की मुख्य धारा में षामिल करनें केलिए ऐसे विषेश प्राधिकरण हमषा ही बनाए हैं। अपनें ही प्रदेष में उत्तराखण्ड विषेश विकास प्राधिकरणउत्तराखण्ड केलिए लम्बे समय तक काम करता रहा है। यदि यह कहा जाय कि आज का उत्तराखण्ड प्रान्त विष” “उत्तराखण्ड विषेश विकास प्राधिकरणकी ही देन है तो कोई अतिषंयोक्ति नहीं होगी।
आप कह सकते हैं कि बुन्देलखण्ड दो प्रान्तों के बीज बटा है इसलिए समस्या है। लेकिन तब आप यह क्यों भूल जाते हैं कि पंजाब और हरियाणा दोनों ही प्रान्तों की राजधानी चण्डीगढ़और यह एक छोटा सा षहर केन्द षासित राज्य है लेकिन उससे किसी भी प्रान्त की स्वायत्ता में अतिक्रमण नहीं होता। देष की राज धानी दिल्ली, दिल्ली प्रान्त द्वारा षासित है वहां भी किसी की स्वायत्ता का हनन नहीं होता। लोग जाने हैं कि सवाल स्वायत्ता का नहीं सिर्फ और सिर्फ सवाल पैसे का है।

विकास या विनाश ! बुन्देलखण्ड के पुल


सरकारों नें पारिथतिकी को बलाएताक रख बुन्देलखएड में विकास के लिए तमाम सारी योजनाएं बनाईं और उन्हें लागू भी किया। लेकिन विकास केलिए योलनाएं बनाते समय, उनके औचित्य और सम्भावित परिणाम तथा उनके पूरी हो जानें के बाद भी उनकी लागत और परिणाम का मूल्यांकन तक नहीं किया। इसके बाद भी ठीक उसी प्रकार की परियोलनाओं की श्रंखलाएं विकसित की गयी। जानकार लोग अब इस तथ्य पर विश्वास करनें लगे हैं कि सरकारों का उद्देष्य किसी क्षेत्र की समस्या का समाधान नहीं बल्कि वह समस्या समाधान करते हुए दिखना मात्र चाहती है, और उसके इस काम में पैसा खर्च किया जाना उसके व्यक्तिगत आर्थिक हितों में शामिल है। अवधेष गौतम
यातायात व्यवस्था के नाम पर यहां की नदियों में बड़े पैमानें पर पुल बनाए गए। लेकिन पुलों की लागत कम करनें के उद्देष्य से केवल नदियों की पेटी के ऊपर तो पुल बनाया गया लेकिन बाढ़ के समय उनके पानी निकलनें के रास्ते में एप्रोचरोड के लिए मिट्टी के बांध खड़े कर दिए गऐ। परिणाम स्वरूप नदियों की बाढ़ के समय उनका प्रवाह बाधित हो गया। जिससे बाढ़ ने भारी तवाही तो मचाई ही साथ ही उनके प्रवाह का रुख भी आक्रमक हो गया। परिणाम स्वरूप नदियों द्वारा ही खेतों में बिछाई गई अत्यन्त उपजाऊ मिट्टी तो बह गयी और उसकी जगह पर बालू की मोटी पर्त बिछ गयी।
बांदा जिले में ही केन पर बांदा शहर में तीन, पैलानी में एक, केन यमुना के संगम चिल्ला में यमुना पर एक पुल बनाया गया है। बांदा में ही चिल्ला से मात्र 18 किमी0 की दूरी पर यमुना पर एक और पुल बेंदा के पास पहले ही बना था। यमुना नदी पर ही चित्रकूट जिले में राजापुर के पास एक पुल और बनाया गया है। हमीरपुर में बेतवा और यमुना दोनों पर सड़क के एक एक और इन दोनों के संगम के बाद यमुना पर रेल का एक पुल बनाया गया है।
सम्भव है इन पुलों से कुछ लोगों को यात्रा में सुविधा मिली हो। अधिसंख्य के नसीब में तो बाढ़ें और खेती का विनाश ही लिख गया है। इन पुलों से किसी किसान का लाभ तो आज तक समझ में नहीं आया बाजार को अवश्य लूटनें के आसान अवसर मिल गए।
अनुभव बतातें हैं कि नदी के प्रवाह में यदि एक पुल बनता है तो वह डेढ़ से तीन मीटर तक नदी के ऊपरी हिस्से पर बाढ़ को बढ़ा देता है, ऊपर के चित्र में साफ स्पष्ठ है। तीन मीटर पानी की दीवार जब पुल की कोठियों के बाहर आती है तो वह जबरदस्त कांणी (जलीय चक्रवात) जो नदी के प्रवाह में 70 कि0मी0 से 150 कि0मी0 तक अपना प्रभाव छोड़ती है। जो नदी के प्रवाह में एक तूफान पैदा कर देती है। जिस कारण खेतों की मिट्टी बह जानें से वहां चट्टानें निकल आती हैं या फिर बालू बिछ जाती है।
इस प्रकार बाढ़ से यहां जो नुकसान पानी में डूबनें, बहने से होता है वह तो होता ही है साथ ही खेतों की तवाही के बाद तो वह नुकसान स्थाईभाव ग्रहण कर लेता है। केवल सूखा ही नहीं यहां की बाढ़ भी बुन्देलखण्ड की तवाही का एक सबब बनती है। पहले तो बाढ़ यदि तबाही मचाती थी तो वह खेतों में नई मिट्टी बिछा कर पैदावार भी बढ़ा देती थी, खेतों में एक तो बालू पड़ती नहीं थी और यदि पड़ भी गयी तो ग्रामीणों को आसानी से मोरम उपलब्ध हो जाती थी। लेकिन इन पुलों की राजनीति के बाद अब तो खेतों में केवल बालू ही पड़ती है और वह भी सरकार द्वारा बालू माफियाओं की झोली में डाल दी जाती है।
विकास केलिए यातायात भी जरूरी है और यदि यातायत के बीच में नदियां हैं तो उनमें पुल भी बनानें ही पड़ेंगें। लेकिन सवाल यह है कि कितने पुल, कैसे पुल और कहां पुल। लेकिन यहां तो पुल बनानें केलिए और उसमें पैसा खर्च करनें केलिए पुल बनाए गए है। यही कारण है कि यहां पुल बनानें केलिए स्थान और तकनीकि दोनों का ही चयन गलत तरीके से हुआ है। यही कारण है कि अब यह पुल यातायात के लिए न होकर पुलों के लिए यातायत हो गया है। ठीक उसी तरह से जैसे कि विकास आदमी के लिए न होकर विकास के लिए आदमी हो गया है। यदि इन पुलों की तकनीकि ठीक रखी जाती तों पुल बनाना थोड़ा मंहगा काम हो जाता। जिससे जगह जगह पुल बना देनें की प्रवृत्ति पर रोक तो लगती ही साथ यह पुल विनाश के वाहक नहीं बन पातें।
ऐसा नहीं कि हमारे तकनीशियनों के पास किसी तरह के ज्ञान की कमी है। अभी हाल ही इलाहाबाद में यमुना नदी पर एक पुल बनाया गया है। जिसकी तकनीकी की तारीफ की जानी चाहिए। वह पुल भी किसी विदेशी नें नहीं बनाया हमारे देश के इन्जीनियर्स नें ही बनाया है। पुल तो है लेकिन यमुना के जल प्रवाह को रंचमात्र भी बाधा नहीं पहुचाता। यही पुल बुन्देलखण्ड में बाढ़ के समय तबाही मचा देते हैं।
बाढ़ के मंजर के समय तो लोग बचनें बचानें में व्यस्त हो जाते हैं, और बाढ़ उतरनें के बाद अपनी व बाढ पीड़ितों की राहत तथा पुनर्वास में। लेकिन भुक्तभोगी तो जानते हैं कि बांदा में केन की बाढ़ नें 1992 में पैलानी पुल के पहले इतिहास के सारे रिकार्ड तोड़ दिए थे, और 2005 में 1992 का भी रिकार्ड टूट गया था, लेकिन पैलानी पुल के बाद तो केन अपनें द्वारा बनाए गए 1978 के रिकार्ड को भी नहीं छुवा था। भुक्तभोगी इसके लिए केन पर बनें बांधों और उस पर बनें पुलों को ही अपराधी मानते हैं। लेकिन उनकी सुनने वाला और मानने वाला कौन है।
                                          बरगद का  विजन 
                            सशक्त  सम्रध और अत्मंनिर्भर  बुंदेलखंड                           
                                       बरगद का मिशन
बुंदेलखंड में  आजीविका के  स्थाई समाधान केलिए पारम्परिक प्राकृतिक संसाधन प्रवंधन हेतु जनपैर्वी
करना तथा सामूहिक  प्रयासों को सशक्त करते हुए बुंदेलखंड की समस्याओ का स्थाई समाधन

Thursday, October 7, 2010

पुनह चालू हो गयी कबरई की खदाने

पुनह चालू हो गयी  कबरई की खदाने
जिला  प्रसाशन महोबा और उत्तर प्रदेश सरकार ने खदान  मालिकानो से रिश्वत ले क्र खदानों को फिर से चालू करा देने के आदेश दे दिया है

Tuesday, October 5, 2010

कबरई की पत्थर खदानe

कबरई की ८२ पत्थर खदानों  को खान सुरक्छा निदेशल्आय ने बंद करा  दिया है
अब स्तोंकेस्र मालिक मजदूरों की बेकारी का तकाजा देकर उन्हें पुनह चालू करना
चाहते है
यह एक साजिस हे